माँ-पिताजी को ये कहते सुना है कि लौट के बुद्धू घर को आयें! लेकिन उपरोक्त केस के लिए भी जरूरी है कि बुद्धू को घर का पता हो…या कम से कम बुद्धू को ये लगे कि वो घर में नहीं है और वो घर लौटने की अदम्य इच्छा रखे हुए सोये-जागे!
हमारा भारत देश, इस बुद्धू से भी खराब हालत में है! हमारे देश को आज तक ये पता नहीं है कि वो कहाँ को चला था, कहाँ उसे लौटना था, उसका सफर किस कारण था और उसकी उपलब्धि क्या रही? हम भटक गए…लगातार भटकते रहे… शायद हर कोई न माने!
लोकतन्त्र एक ऐसी शासन पद्धति है जिसमें जनता को सोचने की पूरी आजादी है कि क्या उसके हित में है और उसे किसके हाथों से उसे साधा जाये! इस पद्धति का सूत्रपात करने वालों ने कभी नहीं सोचा होगा कि भारत-भूमि में ऐसी स्थिति बनने वाली है कि लोगों को अपने हित को लेकर ही असमंजस हो जाएगा! अगर आप एक विचारधारा की मानते हैं तो आपको लगेगा कि कुछ ऐसी चीजें भारत में हो रही हैं जो कि आपके लिए निहायती गलत हैं! बिलकुल यही बात दूसरी विचारधारा के साथ भी लागू होती है! अब ये भी समस्या है कि भारत में न परिवार नियोजन के लिए कोई चिंतित है न तो विचारधारा नियोजन के लिए!
लोग कई बार कह देते हैं कि रक्त, रोटी और राम की विचारधारा ही असली विचारधारा है! लेकिन जिस तरह पसली का संबंध फेफड़ों से है ठीक उसी तरह आपके जीवन के लक्ष्य-उद्देश्यों का संबंध विचारधारा से है! विचारधारा न होने का खम ठोंकना भी अपने आप में एक विचारधारा ही है!
देश के सामने सही तस्वीर नहीं आती। एक ही आकाश को देखकर कोई बिहान के गीत गा रहा है और उसी आकाश को देखकर कोई अकेली अंधेरी रात के आगोश में पड़ा-पड़ा डिप्रेसन में जा रहा है! कोई एक तो सच्चा होगा! कोई एक तो झूठा होगा! कैसे पता चले? लोकतन्त्र अलग-अलग रेस में अलग-अलग दिशा में अलग-अलग वेग से दौड़ रहे राजनेताओं का समुच्चय नहीं है! नेताओं को एक ही रेस में, एक ही दिशा में दौड़ना था। तेज धावक को ही यहाँ भी जीतना था।
मानव को बारिश भी चाहिए, धूप भी चाहिए, कुहरा भी उसके लिए बुरा नहीं है और न तो उसके लिए शीतलहर या लू ही बुरी है! उसके लिए ये जगत की, पर्यावरण की, मौसम की स्वाभाविकता है, जिसे वो जन्म से लेकर आज तक देखता आया है। विश्वास मानिए कि उसके बिना उसका जीवन सूना है! वो उसके लिए, अच्छे-बुरे प्रभावों के लिए बिलकुल अभ्यस्त है, काफी सीमा तक। लेकिन जब वही इंसान कभी कुम्हार और कभी माली बनता है तब उसे कभी बारिश को लेकर और कभी धूप को लेकर पूर्वाग्रह होता है! ये पेशा आदमी की स्वाभाविकता नहीं है! विश्वास मानिए कि जिस विभाजन की बात कर रहा हूँ वहाँ भी अगर देखें तो इन पेशों के वर्गों का फिर भी महत्व हो पर उन वर्गों का कोई महत्व नहीं है! वो एक आदत की तरह प्रासंगिक है और आदत की तरह ही अप्रासंगिक है!
इन विभिन्न हित-वर्गों के कारण इतने ध्रुव बन गए कि हम समझ नहीं पाते कि किसका हित हो रहा है और किसका अहित हो रहा है और किसके हित के कारण किसका हित बाधित हो रहा है! नतीजा कि एक विचारधारा वाला जिसे प्रशंसनीय मानता है उसे ही दूसरा मूर्खता मानता है, एक वर्ग जिसे उल्लेखनीय मानता है दूसरे वर्ग के लिए वो बेकार है! एक वर्ग जिसे अच्छा मानता है, दूसरा वर्ग उसके लिए मरते दम तक तैयार नहीं है!
लोग भटक गए हैं बॉस! इसपर भी समझते कि एक का हित सध रहा है, चाहे वो प्रभावित वर्ग छोटा हो या बड़ा हो! पर दिक्कत ये है कि कई विरोधी वर्गों को जोड़ने के लिए एक काल्पनिक दायरा बनाया जा रहा है और ये ईकवेशन-मनेजमेंट और ये इंजीनियरिंग ने सारा घटनाक्रम धुंधला दिया है! मतलब लग रहा है कि कइयों का भला हो रहा है पर जब डब्बा उल्टा किया गया तो पता चला कि सिर्फ मैनेजरी की गयी थी!
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