जब हमने %आजादी% पायी थी, वो समय कुछ ऐसा था मानो किसी गुदड़ी के लाल की सरकारी नौकरी लगी हो! अब नौकरी लगी है तो पहली कमाई से माँ को साड़ी और पिता को धोती देनी थी, बहन को नए कपड़े देने थे, भाई को किताबें देनी थी। बड़े लक्ष्य भी सामने थे, मसलन, बहन की शादी और भाई की पढ़ाई, पिता का जमीन-मकान छुड़ाना और माँ का इलाज वगैरह-वगैरह! अब साहब को रसोई की पतीली से लेकर कन्या सजीली व बुलेट से लेकर घासलेट सबकी जरूरत थी। लेकिन ये हुआ नहीं।
सोचने पर आप पाएंगे कि भारत का एक वर्ग ही आजादी को भुना पाया, एक ही व्यवस्था आजादी का लाभ ले पायी और धार्मिक व्यवस्था, घर के आँगन में बंधी गाय सी भूखी ही रह गयी। लोग शासन की ओर देखने लगे कि ‘नेता जी! हमारे भगवानों के लिए कुछ करो!’ फिर जो किया गया उससे लोग कितने संतुष्ट हैं, ये लोग ही बेहतर बता सकते हैं! नतीजा ये हुआ कि हम तो नए हो गए, हमारा चोला नया हो गया, अध्यात्म की बदौलत हमने खुद को भगवान में कितना देखा और भगवान को खुद में कितना देखा, ये सोचनीय प्रश्न है! न अध्यात्म पर कोई काम हुआ और न तो मंदिर परिसर और धार्मिक संस्कारों को ही त्राण मिला! नतीजा! इक्कीसवीं सदी के भगवान इन्सानों की दया पर आ गए! और इन्सानों की दया पे तो धरती माता तक की गत है!
भारत में अनगिनत ऐसे देव-स्थल हैं, जहां की शक्ति का आभास नगर, वन, पहाड़ों या उनके बड़े से बड़े दायरे में आकर, किया जा सकता है! लेकिन आज एक धार्मिक परिवार खुद दूसरे प्रांत के शक्तिशाली देव-स्थलों से अनभिज्ञ है! एक कारण तो कि उनका विकास नहीं किया गया और दूसरा कारण अगर पृथक मानें तो आपकी मर्ज़ी, कि उनका प्रचार नहीं किया गया। ऐसे हजारों मंदिर हैं जो केवल आस-पास के जन-समूह की आस्था का केंद्र बनकर रह गए हैं, जो भली-भांति विकसित किए जाएँ तो आशीर्वाद की अंतर्राष्ट्रीय फ्लाईटें उड़वा दें! हमने अपने ही रसोई में अमृत बासी होने छोड़ दिया है! हम पहले फिल्मों पर आश्रित रहे और अब पार्ट टाईम विडियो ब्लोगर्स डंडे खाके, ब्लॉग करके भगवान की यश-कीर्ति फ़ैला रहे हैं…सरकारी नौकरी मिलेगी तो फिर वो उसी सरकार के बाबू बन जाएंगे और अगर हो सका तो हर सप्ताह पाव भर लड्डू अपने पूजाघर में चढ़ाएँगे!
सरकार ने पर्यटन को बढ़ावा देने का प्रयास किया। ऐसे अनगिनत तीर्थ-स्थल हैं, जिनका उद्धार किया जा सकता है। एक तो इन्फ्रा के स्तर पर और दूसरा व्यवस्था के नजरिए से। आज भी कई ऐसे तीर्थ हैं जिसमें स्थानीय-पन ज्यादा है। स्थानीय लोग वहाँ की हर उंच-नीच को जानते हैं, वहाँ के श्रोतों से परिचित हैं और अगर गलती से कोई दूसरे स्थान से श्रद्धा लिए आया तो उसे या तो किसी स्थानीय को गाईड की भांति साथ रखना पड़ता है, वरना बस कपड़ों के साथ लौटना पड़ता है, मन को ये समझाते हुए कि देवस्थल आए, काम हो गया।
ये बिलकुल सही है कि एक तरह सुनियोजित व्यवस्था हर मंदिर को चाहिए, उनका नियमन और उनकी देख-रेख करनी होगी, ये काम उपासक समूह और पुजारी वर्ग को देखते हुए, उनके हितों को भी ध्यान में रखते हुए करना होगा। कुछ मंदिरों में व्यवस्था है पर शेष अनगिनत मंदिरों की व्यवस्था सुनियोजित ढंग से हो, पूजा-उपासना करने वाले पुरोहित वर्ग को वेदों-पुराणों व सनातन साहित्य का ज्ञान करवाया जाये, वहाँ की आरती का प्रसारण हो, उनके अपने चैनल हों, प्रचार-प्रसार माध्यम पर उनकी उपस्तिथि हो, उन्हें मिले दान का सदुपयोग करने का उनका अधिकार हो, पूजन व्यवस्था सबके लिए एक सी हो, श्रद्धालु वर्ग का दर्शन-पूजन धारा-प्रवाह चले, सुरक्षा और सहयोग के पूरे प्रबंध हो! मंदिर को घेरने वाली एक निश्चित घेरे की जमीन पर मंदिर का पूरा अधिकार हो! मंदिरों में विभिन्न कार्यों के लिए कर्मचारियों की नियुक्ति हो! मंदिरों द्वारा की जाने वाली जन-सेवा व समाज सेवा के कार्यों को यथोचित प्रचार मिले, संरक्षण मिले, सहयोग मिले और उनके लिए मंदिरों को यश मिले! मंदिर को खुद को खड़ा रखने लायक साधन पे पूरा स्वामित्व हो!
एक मानव-सभ्यता के लिए मंदिर धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सारी साधनाओं का, ज्ञान-व्यवहारों का, संस्कारों का केंद्र बने! भगवान ने हमें यथा-शक्ति खटवा लिया है, वैष्णो माँ के दरबार से लेकर अमरनाथ और हमारे चार धाम, सबके रास्ते हमारी पूरी परीक्षा लेते हैं! नगरों और गाँव में जहां ये कम यत्न में हमें उपलब्ध हैं, इन शक्ति-पुंजों को ऐसा बनाएँ कि थका हुआ मन यहाँ शांति पा सके।
भगवान ने हमें गढ़ा है और अब हमारी बारी है उनके स्वरूप गढ़ने की, ताकि उनसे प्रेरणा लेकर भविष्य का मानव गढ़ा जा सके। मंदिरों का विकास, हमारी मानव-सभ्यता का विकास है!
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