धर्म का एक छोटा सा हिस्सा है, कानून! कानून न कहें, जीवन-मार्ग कहें! दुनिया में रहने, जीने के आदर्श तरीके! लेकिन कैसे?
जो धर्म किसी भी तरह के निषेध को प्रोत्साहित करता है, वो धर्म आलोचना को आकर्षित करता है! ईश्वर के इस संसार में आप उससे पार देख ही नहीं सकते, जो कि ऊपर वाले ने नहीं बनाया हो! पूरी सृष्टि एक नियम के अनुरूप चल रही है! इस नियम को प्राकृतिक न्याय/ नियम कहते हैं! गणित की ही तरह प्लस गुने प्लस प्लस होता है… वगैरह, वगैरह! तो फिर धर्मशास्त्र क्या कहता है? क्यों कुछ कर्तव्य है और क्यों कुछ निषिद्ध है?
सनातन धर्म, समय के साथ और प्रचुर होता गया, आज भी इसमें थोड़े-थोड़े करके वर्तमान भौतिक पर्यावरण को अपनाने की कोशिशें जारी हैं! इन सारी समझ के पीछे, सिद्धांतों के पीछे वही कुदरती नियम हैं, जो शाश्वत हैं और जितनी मानव की कल्पनाशक्ति की सीमा है, उतनी सीमा तक प्रभावी हैं! लेकिन मानव के जीवन के नियमन के पीछे जो मूल बात थी, वो थी, हमारे आदर्श! वैसे आदर्श, जो एक जड़मति से लेकर एक बुद्धिमान तक की समझ में आ सकें!
श्री रामायण जी का आदर्श लें, तो मुझे नहीं लगता कि इस संसार में जन्म लेने वाला कोई भी मानव, उसी हालात में इससे बेहतर कोई राह अपना सकता था! मुझे नहीं लगता कि ट्रेन की तरह विभिन्न प्लेटफॉर्म पार करती ज़िंदगी का कोई बेहतरीन उदाहरण दे और श्री कृष्ण का नाम वहाँ न आए! मुझे नहीं लगता कि नारी शक्ति और गरिमा जितनी मातृ-आदि-शक्ति में मुखरित हुई है, उतनी किसी और नारी स्वरूप में मुखरित हो सकती है! धर्म इन्हीं का आदर्श हमारे सामने रखता है और हमसे आशा रखता है कि हम भी ऐसे ही आचरण करें, जब तक शरीरधारी हैं, तब तक तो जरूर करें!
धर्म को क्या पड़ी थी? आप जहां भी हो, उसी ईश्वर के लोक में हो! कुछ भी करो, उसी ईश्वर की इच्छा से कर रहे हो! लेकिन कोई आपको हाथ धोने कहे तो आप हर बार ये न कहें कि उसे लाल साबुन बेचना है! हाँ! अगर वो कहे कि लाल साबुन ही हाथ साफ कर सकता है तो उसे कहिये कि साबुन पीला भी हो सकता है या कुछ और भी…
धर्म अक्सर निषेध तब लगाता है जब वो ये समझे कि कुछ ऐसा है कि जिसे जानने या करने के बाद उक्त मस्तिष्क पर उसकी पकड़ कमजोर हो जाएगी, तब वो निषेध पर निषेध डालना चालू कर देता है!
ये मानव शरीर की संरचना है कि वो दो पैर पर खड़ा है, इसका एक मतलब है कि इंसानी रूप में आपसे अपेक्षा की जाएगी कि आप दो पैर से चलें! खुदा न खासता अगर आप दो हाथ भी उपयोग कर लें तो प्रकृति के लिए आपके चार पैर कोई अचरज नहीं, कि यहाँ चौपाये जीव भी हैं, बस आप दो पैर वाली गरिमा और प्रतिष्ठा खो बैठेंगे! प्रकृति ने आपको सदियों की कसरत के बाद, सर्कस के बाद, दो पैर पर खड़ा किया था, आप चार पैर पर खड़े होकर, प्रकृति को निराश करते हैं और नित आगे बढ्ने वाले समय का विरोध करते हैं!
धर्म-शास्त्र का काम आपको कानून पढ़ाना नहीं था, कि कानून आपके भय का दोहन करता है और वो तर्क ही शुरू करता है पूरे समाज को, हर इंसान को अपराधी समझके! धर्म हर इंसान को निर्दोष मानकर, उसे खुद के सामने खड़ा करता है और विवेक के सहारे उसे बदलना चाहता है! धर्म आपके अंदर हर तरफ है और कानून आपको बाहर से जकड़ता है!
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