जी। हास्य होता है किसी वजह से। बेवजह हम हँसते नहीं। पुराने वक़्त में लोग किसी विसंगति पर हँसते थे और फिर उसका निदान कर देते थे। बुराई पर व्यंग्य अनिवार्य था, हँसना भी स्वाभाविक था, कि वो उसे ठीक करना चाहते थे। लोग रावण की कामुकता पर हँसे, दुर्योधन की ईर्ष्या पर हँसे, राक्षसों की प्रवृति पर हँसे। ऐसे उदाहरण हैं कि उनपे हँसने की परंपरा जारी है…सिर्फ परंपरा।
आज आप देखते हैं कि लोग बुराई पर नहीं, अच्छाई पर हँसते हैं, भलाई पर छींटा-कसी करते हैं, उनकी ही खिल्ली उड़ाते हैं। इतना तो हमलोगों को पता होगा कि लोग हंसते हैं विचित्रता पर, विशेष विकृति पर, मूर्खता पर और कुल-मिलाकर उन चीजों पर जो उन्हें दिनचर्या में आसानी से नहीं दिखती। आज हर उस बात पर लोग हँस रहे हैं जो कीर्तिमान था अच्छाई का, जो बहुत उद्दात्त है, किसी युग का अप्रतिम सत्य है। क्या कारण है?
आज की घड़ी ने इंसान को उस गटर में पहुंचा दिया है जहाँ उस व्यक्ति को किसी अच्छाई से परिचय ही नहीं रह गया। वो कल्पना भी नहीं कर पाते कि धरती पर कभी भलाई और डायनासोर विचरते थे। आज के पाप और गंदगी में जब वो उन अच्छाइयों को सेट करते हैं तो उन्हें हँसी आती है, उन्हें सत्य/धर्म/सकारात्मकता बेढब लगती है, कंम्पेटिबल नहीं लगती। लोगों को लगता है कि इस दुनिया के पाप समीकरणों में तो बज ही जाती उन लोगों की।
कल्पना से परे है आज के पाप व पापी, कि पुराने लोगों ने सोचा नहीं होगा कि उनकी अच्छाइयों को जानने वाला, जपने वाला संसार एक ऐसे समय तक जाएगा जब उसे अच्छाइयों के होने पर भरोसा ही नहीं होगा या भलाई तक उसे विचित्र व हास्यास्पद लगेगी।
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