भाई-लोग जितने बड़े कारीगर थे, उतने ही दिलदार व परोपकारी भी। भाई लोगन ने कभी चड्ढी न सिली हो, मैगी न तली हो, पर हमारे गाँव आकर उन्होंने बड़ा कारनामा किया।
हमारा गांव पिछड़ा हुआ करता था साहब! बीसियों महल थे, थोड़े ज्यादा किले थे, कुछ ज्यादा मंदिर थे, अनगिनत बंगले थे….कमरे तो बस कमरे थे, और तो और शौचालय इतने बड़े थे कि भाइलोगन की पूरी बस्ती बस जाए। लेकिन भाइलोगन ने हमारा भला करके ही दम लिया।
भाइलोगन ने हमारे घरौंदे गिरा….न सब गिराने में टाइम बड़ा लगता और इतना टाइम तो ऊपरवाले ने दिया नहीं, तो भाइयों ने हैट पहनाई, कई जगह मौजे बदले, कई जगह हमारे कपड़े की कतरन और हमारे दूध की खुरचन का भी इस्तेमाल किया। मतलब हमारे ही जेब से पैसे निकालके, हमें ही मिठाई खिलाई, हमारी ही धोती फाड़के हमारी ही लंगोट सिलाई।
तिस पर, बस ‘ज्यों ज्यों कर ऊँचयो करो, त्यों त्यों नीचे नैन’ का पालन करते हुए, अहंकार नहीं किया। दातुन से मुंह धोया तो दातुन रोपी भी। अपने ही महालयों में पोटी-पिशाब किया, कभी पैदा होने के बाद रहे, तो कभी गुजरने के बाद भी बसे। वो भी जानते थे कि तख्त-ताज को नहीं, लोग तो उनके जैसे परार्थी को देखने टिकट देंगे! सब सिर्फ इसलिए कि पुरातत्व वाले उसपर बीस रुपये का टिकट लगाएं और सरकारी स्तर पर उनकी खूबसूरती के ढिंढोरे पीटे जाएं।
…और हम कभी भरोसा नहीं कर सके कि हमारी रसोई में, हमारे रसोइयों ने, हमारे ही खेतों के अन्न-सब्जी से, हमारे ही मसाले का उपयोग करके इतना अच्छा भोजन बनाया था जिसे चाटने हम घर के पिछवाड़े कतार लगा रहे हैं!
लेकिन अफसोस! ये टोपीकरण मतलब नवीनीकरण हमारे गाँव में ही रह गया….शायद इसलिए कि…उन्होंने वदन की यही अहमियत समझी कि हाथ काटते रहे और खून निचोड़ते रहे!
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