जब-जब एक वर्ष गुजरता है दिल सोचता है कि अगले बरस फिर कब यहां पहुंचूंगा, कितने घाव नए मिले होंगे, कितने दर्दों से नया रूबरू हो चुका होऊंगा। ये पूर्वसंध्या एक नए सुबह की नहीं, एक अंधेरी रात की भी हो सकती है। कब तक एक थके बीमार शरीर को सुबह की किरणों से तपाकर चलाया जा सकता है? कब तक एक कमजोर दीवार को टूटने से बचाया जा सकता है? कभी-कभी लगता है कि जनता को इस आनंदवादी दर्शन से बाहर आना होगा और सच्चाई से नजर मिलाना होगा। नहीं। पेट और पैसा ही पहली और आखिरी समस्या है, ऐसी बात नहीं है। कई बार समस्याएं ऐसी जटिल होती हैं कि उन्हें अनुभव करना मुश्किल हो जाता है। जब भी ये खुशिया, जब भी ये उल्लास इस बेलगाम रफ्तार से आता है, खुद से इतना जरूर पूछियेगा कि आपका इन खुशियों पर कितना अधिकार है? नहीं। एक कमजोर से लेखक का आपको ये कहना अलग है कि वो आपका भय दुहता नहीं है बल्कि अपना डर कहता है।
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