लोगों ने कहा था कि समझदार बनो! हम नहीं बन सके! उन्होने कहा बहुत कुछ, सिखाने के उद्देश्य से कहा हो या तो ये जताने के लिए कि मैं कितना मूर्ख रहा हूँ और ज़िंदगी में कैसी आत्मघाती गलतियाँ की हैं मैंने! लेकिन मैंने न समझने की कसम खा रखी थी न! मैं नहीं समझा!
इस दुनिया में कोई किसी का नहीं है! एक इंसान खुद हर वक़्त अपना सगा बनकर रह जाये, यही बहुत बड़ी बात है! मुझे भी लगता था कि हर वक़्त अपना सगा बना रहना भी आसान नहीं है! लेकिन दुनिया में इसके लक्षण अलग तरह से दिखाई पड़े हैं! हमारे बड़े होने के क्रम में जो-जो शिक्षाएं दी गईं वो सारी की सारी बेकार निकलीं। आज लोगों को लगता है कि उन्होने कोई पुरानी बेकार सी किताब पढ़ी हो जो आज आउट ऑफ प्रिंट चली गयी है! सारे मूल्य-आदर्श ओछे साबित हो गए। सब कुछ का एक ही मानदंड बन गया कि भौतिकता ही परम सत्य है, भौतिक विकास ही जीवन की चरम उपलब्धि है, भौतिक संसार ही आदमी का ध्येय है! किसी ने नहीं समझा कि घी डालके कभी आग को शांत नहीं किया जा सकता। आग और धधकेगी। नतीजा हुआ कि लोग अर्थ-पिशाच बनते गए।
अर्थ-पिशाच कहना भी सौ फीसदी सही नहीं है! कुछ लोग मानसिक सुख के लिए नशा करने लगे, चाहे वो शक्ति का ही क्यों न हो, कुछ लोग शारीरिक सुख के लिए आगे बढ़ गए और वो सारे मुकाम पार कर गए, सब कुछ हासिल कर लिया जिसके बाद उनका शरीर ही खोंखला हो गया। पाप से पाप ही उत्पन्न होता है। हासिल करने के लोभ में, इस ठोंका-ठोंकी में लोगों ने आत्मसंयम, आत्म-नियमन, आत्म-अनुशासन, आत्म-बल, आत्म-विश्वास, आत्म-गौरव और अपनी आत्मा की आवाज खो दी। आज उनके पास सिर्फ एक दिशा है, कि हर एक क्षणिक सुख, चाहे वो मानसिक हो या शारीरिक हो, उसको हासिल करो, तभी कुछ लोग कहते हैं, पाकर भी उनके जीवन में रिक्ति रह गयी है। ये रिक्ति पाने के बाद नहीं है, ये रिक्ति उनमें संस्कारों के रूप में विद्यमान है। उन्हें अगर कैलाश या वैकुंठ भी दे दिया जाये तो भी ये रिक्ति नहीं जाएगी।
आज इंसान खुद से भी संबंध नहीं निभा पा रहा तो वो दूसरों से संबंध क्या निभा पाएगा। आप इंसान शब्द की जगह अपना नाम लिखिए और देखिये कि आप खुद अपने साथ क्या कर रहे हैं! चिड़िया भी नशे की फसल के ऊपर नहीं मंडराती पर उसी नशे को इंसान रगों में लेकर घूमता है। वो और किसी की नहीं, अपनी आयु कम करता है! इससे ज्वलंत उदाहरण और क्या मिलेगा? ये सारी दौड़-भाग यहीं रह जाएगी और पार्थिव शरीर को हिलाने के लिए आपको फिर विधाता के ही बनाए सृष्टि की ही जरूरत पड़ेगी! आपकी येन-केन-प्रकारेण हासिल की गयी हर उपलब्धि छोटी है! आपकी गुटबाजी, ये ओछी राजनीति आपको एक क्षण के लिए भी आराम करने दे तो अपने बुने हुए जाल में कुछ क्षण स्थिर होकर गुजारें और देखें कि आपमें कितनी विकलता है! आप ने जिस कलयुगी पाप-अग्नि को जलाए रखा है अगर उसमें आपने दूसरे को नहीं झोंका तो वो आपको निगल जाएगी। लेकिन आप ये भी समझ लीजिये कि हर बार आपको इस आग के लिए शिकार नहीं मिलेगा, अंत में आपको ही इसमें जलना है!
धर्म कुछ दूरी तक कष्ट देता है और फिर आप बेफिक्र होकर जीते हैं! धर्म से आपको तभी तक भय है जब तक कि आप उसकी शरण में नहीं आए हैं। एक बार धर्म को अपनाइए और फिर देखिये न किसी से अमर्ष रहेगा, न भय होगा। अगर आप समूह में अधर्म को न्योतकर धर्म की खिल्ली उड़ा भी लें तो भी ये समझें कि एक तरह का अधर्म दूसरे तरह के अधर्म का तभी तक है, जब तक उसे धर्म से लड़ना है! अधर्म खुद अधर्म का भी नहीं है, न तो मुफ्त में, न तो मेहनताना लेकर। आप इतिहास पलटकर देखिये!
ये समझ रखकर भी हम नासमझ हैं, तो ये नासमझी ही बेहतर है!
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