उम्मीद करता हूँ कि भारत में राष्ट्रद्रोह का कोई कानून होगा। अगर राजद्रोह से ही राष्ट्रद्रोह का भी काम चल रहा था तो ये अचरज की बात है। हर एक संगठन, व्यवस्था, विचारधारा, एक अभिव्यक्त हो सकने वाली या लागू हो सकने वाली इकाई है। अगर ‘कुछ’ अस्तित्व में है, तो उस ‘कुछ’ का विरोध भी होगा। अंगीकृत व्यवस्था का विरोध, अराजकता या कि विपरीत व्यवस्था की शुरुआत है। राष्ट्र अगर अस्तित्व में है तो राष्ट्रद्रोह भी होगा। जैसे प्रकाश का उल्टा अंधकार है, ज्ञान का उल्टा अज्ञान है, उसी तरह राष्ट्र का उल्टा कुछ तो होगा। कुछ तो होगा जो राष्ट्र को नुकसान करे, उसके विरोधी गतिविधि में शामिल हो! राष्ट्र की एक दिशा होती है, एक हित होता है, एक समझ होती है, एक संस्कार होता है, एक हथियार होता है। निश्चित तौर पर इसका विरोध ही राष्ट्रद्रोह है और ये द्रोह उतना ही अवश्यम्भावी है, जितना राष्ट्र है, ये द्रोह उतना ही सत्य है, जितना राष्ट्र है।
मुझे लगता है कि भारत में जितने ज्यादा कानून लिखे गए हैं उतने ज्यादा तो भारत की खुश-नसीबी भी नहीं लिखी गयी। भारत राष्ट्र के मूल-भाव का विरोध करने पर खड़ी होने वाली धाराएं भारत के कानून की किताब में हैं तो फिर राजद्रोह का रोना क्यों रोना? राजद्रोह, शब्द ही इसे बदनाम कर गया। राज का द्रोह राजद्रोह कहलाया। अब राजा भी तो राज्य की मूलभावना का प्रतिनिधित्व करता नहीं, वो राष्ट्रनीति नहीं राजनीति का अनुगामी बन गया है। राजा का आदेश बनकर जब राष्ट्र खुद को व्यक्त न करे तो राजा खलनायक ही बनेगा। अब खलनायक को चिढ़ाने का तो सबको हक़ है। लेकिन राष्ट्रद्रोह के लिए किए प्रावधानों को थोड़ा प्रचारित करना चाहिए।
हे प्रभु! अब राष्ट्र नाम पे सर-फुटव्वल न करें। 2014…ठीक है….क्या? इमरजेंसी…जी हुज़ूर!….1947! आप भी ठीक हो!….पांच लाख वर्ष पूर्व! हाँ भाई सेंट परसेंट!
फैसला कीजिये राष्ट्र क्या है, क्यों है, कब से है और फिर द्रोह व द्रोही पर फैसला कीजिये और तब तक मुझे आज्ञा दीजिए।
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